माटी के लाल की बातें
कहां जाएं हम इस डगर में, इस शहर में सड़कें नहीं।
मंजिल है मुसाफिर भी है, वो मुस्कान नहीं।
वो यादें नहीं, वे तन्हाई नहीं,बिक गई वह मुस्कान यहीं।
न जाने मेरी वो तन्हाईयां कहां,
न जाने मेरी वो यादें कहां।
ढूंढता हूं मैं उस उजड़े रास्तों में,
धूमिल हो रही जिंदगी से पूछता हूं।
कब तू तन्हाईयों को, मेरी यादों को ढूढ़ लाएगी।
इस शहर में नहीं, इस सड़क में नहीं।
जगमाती शहर की रोशनी
मेरे इस गांव में कब आएगी।
गांव की सड़क से कब हम शहर की सड़कों पर जाएंगे।
हम हैं हमारे हिस्से जिंदगी, कब तक अपने स्वार्थ के लिए कोई जिएगा।
मंजिल है मुसाफिर भी है, वो दिन हम यूं ही गुजार देंगे।
मेरा भारत है मेरा, कब हमें मिलेगा हमारे हिस्से की रोटी
कब तक कोई कागज़ के पैसों से कमाएगा रकम मोटी।
कब तक हम यूं हलों से हम जमीन पर बोते रहेंगे।
कोई और कब तक हमारी जिंदगी के हिस्से बांटते रहेंगे।
सूनी कालाई, जिसने गंवाई सीमा के पार अपने माटी के लाल।
और कब होगी दिल्ली में इस गांव की कदर।
कब तक कोयले में जलेगा हिंदुस्तान।
कहां जाएं हम इस डगर में, इस शहर में सड़कें नहीं।
मंजिल है मुसाफिर भी है, वो मुस्कान नहीं।
वो यादें नहीं, वे तन्हाई नहीं,बिक गई वह मुस्कान यहीं।
न जाने मेरी वो तन्हाईयां कहां,
न जाने मेरी वो यादें कहां।
ढूंढता हूं मैं उस उजड़े रास्तों में,
धूमिल हो रही जिंदगी से पूछता हूं।
कब तू तन्हाईयों को, मेरी यादों को ढूढ़ लाएगी।
इस शहर में नहीं, इस सड़क में नहीं।
जगमाती शहर की रोशनी
मेरे इस गांव में कब आएगी।
गांव की सड़क से कब हम शहर की सड़कों पर जाएंगे।
हम हैं हमारे हिस्से जिंदगी, कब तक अपने स्वार्थ के लिए कोई जिएगा।
मंजिल है मुसाफिर भी है, वो दिन हम यूं ही गुजार देंगे।
मेरा भारत है मेरा, कब हमें मिलेगा हमारे हिस्से की रोटी
कब तक कोई कागज़ के पैसों से कमाएगा रकम मोटी।
कब तक हम यूं हलों से हम जमीन पर बोते रहेंगे।
कोई और कब तक हमारी जिंदगी के हिस्से बांटते रहेंगे।
सूनी कालाई, जिसने गंवाई सीमा के पार अपने माटी के लाल।
और कब होगी दिल्ली में इस गांव की कदर।
कब तक कोयले में जलेगा हिंदुस्तान।
अभिषेक कांत पाण्डेय