प्राइवेट क्षेत्र में न्यूनतम वेतन कब

अभिषेक कांत पाण्डेय

हर किसी के जीवन में कुछ न कुछ ऐसा अनुभव होता है जो सोचने पर मजबूर करता है। ऐसे अनुभवों में मैं पिछले महीने से जूझ रहा हूं। ये मेरा व्यक्तिगत अनुभव है लेकिन सही मायने में ये दर्द हर उस व्यक्ति का है जो जीना चाहता है, सम्मान की जिंदगी चाहता है। भारत में रहने वाले उन करोड़ों लोगों की कहानी है। इसमें मजदूर से लेकर महीने पगार पाने वाले कामगार, ठेके पर मजदूरी करने वाले या किसी कंपनी में कंप्यूटर वर्क करने वाले यहां तक की पत्रकार, शिक्षक, हर वो कोई जो अपने हाथों से मेहनत करता है, उसके बदले उस बेहतर जिंदगी के लिए उचित वेतन पाने का अधिकार है। लेकिन इन प्राइवेट क्षेत्रों में सही सरकारी नीति का न होना व कामगारों के लिए ठोस कानून का नहीं होना, यहां पर करोड़ों लोग अपनी जिंदगी होम कर रहे हैं। कम वेतन  व काम के अधिक घंटे उनके प्रकृतिक जीवन के साथ खिलवाड़ है। बेगारी व शोषण के शिकार  ऐसे लोग उन नियोक्ता के लिए काम करते हैं, जो वाता​नुकूलित ढांचों में सांसें लेते हैं और काम कराने के लिए ऐसे वर्गों का उदय किया है जो बिल्कुल अंग्रेजों के जमीदारों के भूमिका में है, ऐसे चुनिंदा मैनेजर जो अपनी अच्छी सैलरी के लिए अपने निचले स्तर के कर्मचारियों का शारीरिक व मान​सिक शोषण करते हैं। बारह से सोलह घंटे का करने वाले ये मानव भले ही लोकतंत्र के छत्रछाया में जी रहे हों लेकिन सही मायने में लोकतंत्र तो इनके नियोक्ता के ​लिए ही है।
प्राइवेट एवं गैर सरकारी क्षेत्रों में स्थिति बद से बदतर है। काम के अधिक घंटे और कम वेतन। बेरोजगारों की लम्बी कतार, नियोक्ता को बार्गनिंग करने का अवसर प्रदान करता है इस लोकतंत्र में। मान लीजिए कि आलू की पैदावार अधिक हो जाए और उसकी कीमत लागत से कम आंकी जाए तो खेतों में जी तोड़ मेहनत करने वाला किसान क्या करेगा। अखबारों की खबरों में किसान की दयनीय हालत उस सरकारी तंत्र की विफलता की हकीकत है, जो हम बार—बार वोट देकर चुनते हैं ऐसी निकम्मी सरकार। कब हम तय करेंगे सरकारों की जिम्मेदारी व जवाबदेही।
बेगारी कराना भारत में ही नहीं दुनिया के हर देश में अपराध घोषित है पर हम जिस देश भारत में रहते हैं, वहां काम के अधिक घंटे काम कराकर अपना काम निकालने वाली कंपनियां, भारतीय कानून की धज्जियां उड़ा रहे हैं। ऐसे ही कई प्राइवेट और यहां तक की सरकारी संस्थान हैं जो कर्मचारियों का शारीरिक व मानसिक शोषण करते हैं। इनके विरुद्ध अवाज उठाने वाले को प्रताड़ित किया जाता है। आइपीएस अमिताभ ठाकुर हो या प्राथमिक स्कूलों में नियुक्ति के लिए चार वर्षों से सुप्रीम कोर्ट तक गुहार लगाने वाले शिवकुमार पाठक को उत्तर प्रदेश सरकार ने बदले की भावना के चलते उन्हें बर्खास्त किया, वहीं सुप्रीम कोर्ट से अपनी बहाली का आदेश लेने के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार ने फिर वापस नौकरी पर रखा लेकिन बदले की भावना यहां भी अभी खत्म नहीं हुई। कैसे सरकारी नियोक्ता के खिलाफ आवाज उठाया, इसकी सजा समय—समय पर मिलनी है परिणामस्वरूप अभी फिर उन्हेंं मौलिक नियुक्ति देने से इनकार कर दिया।

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मई दिवस में रेल संगठन व तरह—तरह के मजदूर संगठन केवल भाषणबाजी का कार्यक्रम कर अपने दायित्व की इतिश्री कर लेते हैं। श्रमजीवी पत्रकार संगठन इसका जीता जागता उदाहरण है। यूं तो इस संगठन का दायित्व ये है कि पत्रकारिता से जुुड़े कर्मचारियों के हितों की रक्षा करना, उन्हें सही वेतन, भत्ते और काम के आठ घंटे जैसे मूलभूत सुविधा दिलाना ताकि​ पत्रकार का मानसिक और शारीरिक शोषण न हो। लेकिन बड़े मीडिया मालिक सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद पत्रकारों को उचित वेतन देने की म​जीठिया की सिफारिशों का खुले आम धज्जिया उड़ा रहे हैं। इसके खिलाफ आवाज उठाने वालों चुनिंदा प़त्रकार ही हैं, उन्हें संस्थान से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। कामोवेश ऐसी स्थिति प्राइवेट क्षेत्रों में है।
नामी गिरामी पब्लिक स्कूल में हाईफाई फीस देने की स्थिति कितने भारतीयों के पास होगी मुश्किल से चार प्रतिशत अमीर लोगों के पास। इन स्कूलों में अच्छी शिक्षा है, ये शिक्षा गरीब तबके कि क्या बात मध्यम आय वर्गों से ताल्लुक रखने वाले भारतीयों को भी नसीब नहीं, चाहे वे किसी भी जाति के हों, चाहे वे पिछड़े हो या दलित या सामान्य जाति का ही क्यों न हो। सामान शिक्षा का अधिकार कब दिया  जाएगा, आजादी के 69 साल बीत जाने के बाद भी केवल जातिवाद और आरक्षण की बेतुकी राजनीति ही हो रही है। जनता को रोजगार अधिकार और सम्मान से जीने का अधिकार चाहिए, वह एजेंडे वाली सरकार कब आएगी। भले ये आज के समय में राजनीतिक पार्टियों के लिए ये  ज्वलंत सवाल न हो लेकिन देखा जाए जिस तरह बेरोजगारी की बढ़ती समस्या और संसाधन की लूट बढ़ रही है, वो दिन दूर नहीं कि न्यूनतम वेतन क्रांति का अधिकार की आवाज उठाने के लिए युवा आगे आएंगे। 

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