कविता

द्रौपदी घाट

पुराना पड़ा सिलबट्टा
भगवान की तरह,
मूसल का भी टूट गया घमंड
खपड़ा बोल रहा
माटी फर्ज अदा कर
डेबरी उजियारा देखकर
पनारा से निकलते पानी को
टाठी में दाल चावल
सलाई रख दिया
ताखा पर।

लाल सिंदूरी
वाला दादा
अभी भी सबको पाल रहा
कोई उसके घमंड में
कोई उसी को अपना समझ के
दूसरे के दुख से खेल रहा
सहजन के फुनगी
बूढ़ा बरगद
गिरी अपनी पत्तियां
सूंघ रहा जलती हुई
बरगद किलकारियों में
मेरे दादा परदादा को खोज रहा
फौजी का लालच
मौजू बना
वह गूगल गूगल खेल रहा।

भगवान फैलाए कैसे पैर
सिर के ऊपर बाजू खोले जब
जमीन पड़ रही है कम,
वह देखो दूर दाढ़ी वाला बाबा स्कूटर पर,
मंत्रों वाली सॉन्ग
इधर सबसे ऊंचा मेरा मन
बरगद से झांक रहा।
बरगद की समझ को आंक रहा मैं
भगवान मुस्कुराते
सोचते सारे जीव
कौन समेट रहा जमीन चटाई की तरह
हुनरमंद
दढि़यल बाबा।
लाट साहब का घाट
तैर रही थी सारी उम्मीदें
हर एक की
सीने में उग रही थी फसलें
सब सहारे थे
बस यही तो डर नहीं था
वहां किसी को
कि भगवान भी लेते हैं सांस
वह भी टहलते हैं
उठते हैं
बैठते हैं।

अभिषेक कांत पांडेय

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